दूर तक अन्धेरा ही अन्धेरा है,चलो लौट चलें।
कितना सायूस़ सवेरा है , चलो लौट चलें ।।
गर्दिशे-वक्त़ की गुबार है, कुछ यूँ फैली ।
और तकदीऱ की चाद़र भी अपनी,है मैली।
बेऱहम धुन्ध ने घेरा है, चलो लौट चलें ।। कित़ना मायूस....
कहीं भी रोशनी नहीं,जहाँ तक जाती नज़र।
चलो अब छोड़कर चलें,ये अन्धेरों का शहऱ।
यहाँ खुद़ग़र्जी का डेरा है, चलो लौट चलें ।। कितना मायूस....
चलो वहीं फिर, जहाँ ज़िन्दग़ी नग़मे गाती।
जहाँ..गोपाल..सच्,इन्सानियत़,उम्मीद़ के साथी।
प्याऱ का दिल़ में बसेरा है, चलो लौट चलें ।। कितना मायूस....
Sunday, January 3, 2010
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