Tuesday, June 27, 2023

ना नीति, ना नीयत् ........

 ना नीति, ना नीयत, न ही ईमान रह गया।

इन्सानियत चली गयी, इन्सान रह गया।।

अब तो भले-बुरे में, कहॉ फ़र्क़ रह गया ।

अब बस् ये है , कि क्या नफ़ा-नुक़सान रह गया।।         

अब सच का सच बचाए रखना, सच में कठिन है।

सच आज ये सच देख , ख़ुद  हैरान  रह  गया ।।

Dedicated to Kashmiri Pandits-

हैरत् से ,देखता सा , मेज़बान रह गया ।

मालिक था जो क़ल, आज वो मेहमान रह गया।।

क़िलकारियाँ उजड़ गयीं, बस्ती बदल गई ।

सपनों का घरौंदा, खडा़ वीरान् रह गया ।।

दुनियाँ की पहली वादिये- ज़न्नत् है ,जहाँ से।

‘संतोष’ तो चला गया, ‘सलमान’ रह गया  ।।




 


Sunday, June 25, 2023

क्या कहें............

 क्या कहें, हर एक इन्साँ, रहनुमा लगता है अब।

इस जहाँ में अपना होना, बेवजह लगता है अब।।

उम्र भर हमने अदब से, अदब की तालीम ली ।

आज बेअदबी के आगे,अदना सा लगता है अब।।

आरज़ू में जिसकी , हमने दे दिये बरसों-बरस ।

उसका मिलना और न मिलना, एक सा लगता है अब।।

ज़िन्दगी का मानकर मक़सद,जो कुछ करते रहे ।

वो करना, और कुछ न करना, एक सा लगता है अब।।

उम्र भर हमको फ़िकर थी,  राह ना छूटे कभी ।

जिसको देखो,राह बिन ही,दौड़ता लगता है अब।।

हुनरमन्दों के ज़हाँ में, हम ही ठहरे बेहुनर  ।

दिल नहीं”गोपाल” अपना भी, यहाँ लगता है अब।।


Saturday, June 24, 2023

कहीं भीतर ही भीतर...............

“ ख़ुद अपने आप से,मैं छूटता सा जा रहा हूँ ।

कहीं भीतर ही भीतर,टूटता सा जा रहा हूँ ।।

तमाम सैलाबों में घिरकर,निकल आई किश्ती ।

आके साहिल पे ,पर अब डूबता सा जारहा हूँ।।

भीड़ की गर्दिशों में , हर तरफ़ तन्हाई है ।

कहाँ हूँ मैं ,कि खुद को ढूँढता सा जा रहा हूँ।।

कहें क्या?किस कदर आलूदगी फैली हर सू ।

एक-एक साँस को मैं जूझता सा जा रहा हूँ।।

चन्द ताज़ी हवा के क़तरे, बख़्श दे मालिक।

अब तो बस हद हुई,दम घोंटता सा जा रहा हूँ।।

अब तो हर दिन गु़जर रहा है,इस तरह मानो ।

कि जैसे ख़ुद ही ख़ुद को, लूटता सा जा रहा हूँ।।

मिटा  आलूदग़ी ,   या मेरा फ़ैसला कर दे ।

हूँ तो मिट्टी ही’’गोपाल”, फ़ूटता सा जा रहा हूँ।।“




Saturday, July 18, 2015

अब वो क़सीदा नहीं रहा.............

जुमलों में उनके,अब वो क़सीदा नहीं रहा।
लगता है उनको, ख़ुद पे अक़ीदा नहीं रहा ।।

जो लोग पिछड़ जाते हैं, रफ्तारे-वक़्त से ।
दुनियाँ उसे कहती है, तरीक़ा नहीं रहा  ।।

नज़रें जो बदलता है, नज़ारों के संग-संग।
ये वक़्त गवाह है , वो कहीं का नहीं रहा  ।।

कुछ तो उसूल हों , ज़िन्दग़ी के वास्ते  ।
अब वक़्त एक सा तो किसी का नहीं रहा।।

ये कौन सा दस्तूर, बना रक्खा है हमने।
मतलब के बिना कोई, किसी का नहीं रहा।।

हमने तो सुना है कि, ज़र्रे-ज़र्रे में रब है।
हममें ही, देखनें का सलीक़ा नहीं रहा ।।

इंसान ही, इंसानियत् का फ़र्ज़ न समझे।
,,गोपाल,, ये तरीक़ा- तरीक़ा नहीं रहा  ।।

Wednesday, October 8, 2014

ज़िन्दगी का तज़ुर्बा.......................

ज़िनदग़ी का तज़ुर्बा ,  यूँ तो, हमें चौंका गया  ।
रफ्ता-रफ्ता जाने कैसे, फिर भी जीना आगया।।

ठोकरों पे ठोकरें खाई ,  संभल कर चल दिये ।
इस बहाने ख़ुद ही ख़ुद को, आजमाना आगया।।

हरक़तें यूँ तो , ज़माने ने बहुत की मेरे साथ  ।
पर हमें भी,इसके चलते,ज़ख़्म खाना आगया।।

साथ चलने को कहा ,हमको भी चलते वक़्त ने।
हमने बोला रहने दे,अब बस् यही रास आगया।।

बेअदब जो बेमुरौवत,बेलियाक़त् ,बेलिहाज़।
वो हमें तहज़ीब देते , क्या ज़माना आगया ।।

उम्र भर जो ख़ुद  , ज़माने में रहे हैं बेशऊर  ।
क्या कहें, उन बन्दरों को भी सिखाना आगया।।

कर अदावत् , देखता हूँ , कितनी तुझमें ताव है ।
उसको क्या, सबको जिसे, अपना बनाना आगया।।

सीखने के वास्ते, निकले थे कुछ इल्मो-हुनर ।
शुक्रिया ,,गोपाल,, तुमको दिल दुखाना आगया।।

Sunday, June 22, 2014

ख़ुद अपने आप से.......................................

ख़ुद  अपने  आप  से, मैं  छूटता  सा  जारहा  हूँ।
कहीं  भीतर  ही  भीतर,  टूटूता  सा  जारहा  हूँ ।।

तमाम शैलाबों में घिरकर,निकल आई क़िश्ती।
आके साहिल पे, पर अब डूबता सा जारहा हूँ ।।

भीड़  की  ग़र्दिशों  में,  हर  तरफ़  तनहाई  है ।
कहाँ हूँ मैं, कि ख़ुद को  ढूढ़ता सा जारहा  हूँ ।।

कहें क्या, किस क़दर आलूदगी  फैली हर सू ।
एक-एक साँस को , मैं जूझता सा जारहा हूँ ।।

चन्द ताज़ी हवा के क़तरे, बख़्श दे मालिक ।
 अब तो बस् हद् हुई, दम घोंटता सा जारहा हूँ।।

मिटा  आलूदगी ,  या  मेरा  फैसला  करदे  ।
हूँ तो मिट्टी ही आख़िर, फूटता सा जारहा हूँ।।

अब तो हर दिन, ग़ुज़र रहा है इस तरह मानो।
कि जैसे, ख़ुद ही ख़ुद को लूटता सा जारहा हूँ ।।

न  देना  दोष  मुझे , मेरे  बदल  जाने  पर  ।
,,गोपाल,, था मैं,पर अब बदलता सा जारहा हूँ।।

Saturday, June 21, 2014

ज़मीं से लग के चलो........................

ज़मीं से लग के चलो,हमक़दम ज़मीं होगी।
हर जगह  आसमाँ नहीं, मग़र ज़मीं होगी ।।

तू इक़ पौधा था, जिसे अब दरख़्त कहते हैं ।
तेरी रग़ों में भी, धरती की ही नमीं होगी  ।।

अपनी ऊँचाईयों पर,इतना तू अभिमान न कर।
देख  नीचे , तुझे  थाम्हे  हुए ,  ज़मीं  होगी  ।।

हवा  के  ज़ोर  पर,  पत्ते  भी  शोर  करते  हैं।
तनिक आँधी चली, तो साख़ भी नहीं होगी ।।

साख़ से छूट कर, कब  तक  हवा  में  ठहरेगा ।
उसकी भी मुस्तक़बिल,आख़िर यही ज़मीं होगी।।

खींचती रहती है, हर चीज़ को अपनी जानिब ।
किसे दामन में जगह, इसनें  दी  नहीं  होगी  ।।

उठ के मिट्टी से, फिर मिट्टी में ही मिल जाना है।
,,गोपाल,, चाहे कितनी  भी  बड़ी  हस्ती  होगी ।।