जब भी मिलते हो,दिल़ को ज़ख्म़ नया देते हो।
दोस्त बन-बन के तुम,हर बार द़गा देते हो ।।
तुम्हे एहसास़ ही क्या,दिल़ है क्या,जज्बात् है क्या।
गरज़ पे अपने,याद़ करते हो,भुला देते हो ।।
अपने मतलब़ के लिये,रंग बदलते हो तमाम़।
कहीं,किसी भी हद़ तक,खुद़ को गिरा देते हो।।
सुनाए तुमको ,कोई अपना हाले-दिल़ कैसे ।
..गोपाल..सुनने से पहले ही, सुना देते हो।।
Friday, January 1, 2010
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