Monday, December 28, 2009

अपनों की भीड़ में....

गुज़री है यूँ तो जिन्दग़ी ही अपनी भीड़ में।
पाया है खुद़ को फिरभी हर मुकाम़ पे तन्हा।।

ये जिन्दग़ी जिनके लिये टुकडों में बाँट दी।
मेरे लिये, अब उनके पास वक्त ही कहाँ।।

किससे कहूँ,खुद़ अपना गुनहगाऱ हूँ मैं तो।
बद्किस्मती को अपनी मैं रोऊँ कहाँ-कहाँ।।

चाहा सुकूऩ, तो मुझे बेचैनियाँ मिलीं।
माँगे बगैर पाया, दर्दो-गम़ की इन्तहा।।

रिश्तों के आगे जिसने क़दर वक्त़ की न की।
अपनों की भीड़ में भी वो..गोपाल..है तन्हा।।

अब उज्र क्या करें....

हालात़ के दलदल़ में फँस के रह गया हँ मैं।
किस्मत़् के भवँर में उलझ के रह गया हूँ मैं।।

गम़ से तो जैसे हो चुका रिश्ता क़रीब़ का।
यूँ दर्द के हद़ से गुजऱ के रह गया हूँ मैं।।

मैं, आद़मी बहुत ही ऊँचाई-पसन्द था ।
कब जाने खलिज़ में उतर के रह गया हूँ मैं।।

म़ाजी को अपने मुड़ के जो देखा,तो ये जाना।
मैं कौन था और कौन बन के रह गया हूँ मैं।।

किस सख्श़ को,मैं अपनी तबाही का दोष दूँ।
खुद़ जिन्दग़ी के हाथों,मर के रह गया हूँ मैं।।

उस सख्श को भी हमसे उम्मीदें वफा की हैं।
जिसकी ज़फा से खुद़ बिखऱ के रह गया हूँ मैं।।

अब उज्र क्या करें,अब तो हस्ती ही मिट गयी।
..गोपाल..गर्दो-खाक़ बन के रह गया हूँ मैं।।

वक्त़ लुटेरा है बहुत़....

हदे नज़र से मेरी,दूर सवेरा है बहुत।
जिन्दगी अब तेरे सफऱ में,अंधेरा है बहुत।।

अब इस सियाह़ रात़ की सहऱ नहीं शायद़।
रोशनी जुगनुओं ने,यूँ तो बिखेरा है बहुत।।

ये अन्धेरा ही अब़ फिलहाल़ मुकद्दऱ है मेरा।
हरेक मुकाम़ पे, इसने मुझे घेरा है बहुत।।

दिल़ किसी का दुखे हमसे,ये न चाहा हमने।
फिरभी दुनियाँ ने,दुखाया दिल़ मेरा है बहुत।।

ऐ गमे-जिन्दगी , तेरा ही सहारा है हमें।
ज़ख्मे-दिल़ को,ख्यालो-ख्वाब ने छेड़ा है बहुत।।

आज़ जब मेरे पास कुछ भी नहीं,तो तूँ है।
दिले-नाचीज़ पर,एहसाऩ ये तेरा है बहुत।।

इसेक वक्त़ ने,क्या-क्या न मेरा लूट लिया।
..गोपाल..जानलो,ये वक्त़ लुटेरा है बहुत।।

Sunday, December 27, 2009

है यही दस्तूर....

आज़ कमसिऩ है,कल भरपूर तो होना है उसे।
खूबसूरत है गऱ, मगरूर तो होना है उसे ।
इल्म़ है उसमें जो, मशहूर तो होना है उसे ।
अर्जी जायज़ है गऱ, मन्जूर तो होना है उसे।
किया है ईश्क़ जो, मज़बूर तो होना है उसे ।
लगाया दिल़ जो,ग़म से चूर तो होना है उसे।
मिला है आज़ जो, कल दूर तो होना है उसे।
..गोपाल..है यही दस्तूर, तो होना है उसे।।

Saturday, December 26, 2009

मैंने क्या समझा....

चन्द क़तरों को समन्दऱ समझा।
चन्द लम्हों को मुकद्दऱ समझा।।
चन्द साँसें जो कामयाबी की ।
गिनी,तो खुद़ को सिकन्दर समझा।।
चन्द किरणों को भर के मुट्ठी में।
सारा सूरज़ अपने अन्दर समझा।।
देखकर चन्देक़ मज़लूमों को ।
खुद़ को,बस् चाँद के ऊपर समझा।।
कितना नादाऩ था, हकीकत् के -
चन्द टुकड़ों को,मुकम्मल़ समझा।।
आज समझा,कि मैंने क्या समझा।
..गोपाल..किसको किस कद़र समझा।।

कहीं ऐसा ना हो....

कोई हसरत़् ना रहे,कोई तमन्ना ना रहे।
हरेक भरम़ मिटालो,कोई गिल़ा ना रहे।।
तमाम गुन्जाइशों की हद़ को पार कर जाओ।
मिटादो ऐसे,कि मेरा कोई निशाँ ना रहे ।।
मिटादो नाम ही इनसानियत् का दुनियाँ से।
कहीँ जहाँ में,मुहब्बत् का फल़सफा ना रहे।।
कुछ इसतरह ग़ज़ब करो,कि कयामत् आए।
ज़मीं-ज़मीं,ये आसमाँ भी,आसमाँ ना रहे।।
तुम्ही बन जाओ खुद़,खुदा अब इस खुदाई के।
खुदाई में तेरे आगे खुदा,खुदा ना रहे ।।
करो,जो कर सको..गोपाल..,मगऱ याद़ रखो।
कहीँ ऐसा ना हो,सब हों,तेरा पता ना रहे।।

गुजारे साथ जो दिन....

वतन से दूर,घर की याद़ सताती है बहुत।
गुजारे साथ जो दिन,उनकी याद़ आती है बहुत।।

गाँव के मिट्टी की खुश़बू,जहाँ गुजरा बचपन।
खेत-खलिहान,चौबारे,वो द्वार,घर-आँगन।
वो धूल उड़ाती गली,अब भी बुलाती है बहुत।।गुजारे साथ जो दिन....

सुनहरी सुबह़,उजली दोपहऱ,गुलाबी शाम़।
अंधेरी रात,झिलमिलाते वो जुगनूँ तमाम।
बरसते सावऩ की रिमझिम़,मन को भाती है बहुत।।गुजारे साथ जो दिन....

धान-गेहूँ की बालियाँ,वो रसीला गन्ना।
लटकते,मीठे,पके आम,बगीचा अपना।
गुज़र के ठन्डी हवा इनसे,गुनगुनाती है बहुत।।गुजारे साथ जो दिन....

प्यार वो छोटों-बड़ों का,बहुत दिल़ को खींचे।
मगर मजबूरी है,कुछ सपने हैं अपने पीछे।
..गोपाल..अपनों की हर याद रुलाती है बहुत।। गुजारे साथ जो दिन....

Thursday, December 24, 2009

कहाँ गये बचपन मेरे.....

वो नन्हे से पाँव तुम्हारे,नन्हे-नन्हे हाथ।
कहाँ गये बचपन मेरे,तुम छोड़ के मेरा साथ।।

कहाँ गई वो किलकारी,वो चलना सम्भल-सम्भल के।
जिद़ करना हर चीज की,मचल-मचल के,उछल-उछल के।
मिले न जबतक,रोना आँखों पर मल-मल के हाथ।। कहाँ गये बचपन....

माँ की वो मीठी लोरी,बाबा की गोद वो प्यारी।
मेले में जाने की होती,हपतों से तैयारी।
केले और मिठाई,गुब्बारे लहराते हाथ ।। कहाँ गये बचपन....

जाड़ों की वो धूप रसीली,गर्मी की वो शाम़।
खेल के आगे समय नहीं कि करलें कुछ आराम।
दौड़ पड़े बारिस में भीगने,जब होती बरसात़।। कहाँ गये बचपन....

हरे-भरे खेतों से होकर,रोज़ वो पढ़ने जाना।
वो गन्ने और मटर की फलियाँ,तोड़-तोड़ कर खाना।
करते चलना मस्ती में,वो कहाँ-कहाँ की बात ।। कहाँ गये बचपन....

वो होली का हल्ला,रंग-अबीर,ढोलक की थाप।
दीवाली के दीये और पटाखों की आवाज़ ।
कहाँ गये वो पल छोड़कर,यादों की सौगात़।। कहाँ गये बचपन....

ना कोई दुश्मनी,ना कोई चिन्ता,ना कोई गम़।
कभी झगड़ना,कभी लिपटना,खुश़ रहना हरदम़।
नन्हे मन में थे,नन्हे कुछ सपने,कुछ जज्बात़।। कहाँ गये बचपन....

हम चले आये दौड़ते,उन सपनों के पीछे।
जाने कब चुपके से,तुम रह गये छोड़कर पीछे।
ध्यान आया,जब देखा खुद को,बदल चुकी हर बात़।। कहाँ गये बचपन....

सब कुछ मेरा लेके भी,कोई तुमको लौटादे।
उन्ही दिनों में वापस करदे,फिर से हमें मिलादे।
काश़ ये मुम़किन होता गऱ, ..गोपाल..तो फिर क्या बात़।। कहाँ गये बचपन....

जिन्दगी की दौड़ में....

इस जिन्द़गी की दौड़ में,तू दम लगाए जा।
दिल दर्द़ से बोझल हो, फिऱ भी मुस्कुराए जा।।

घबराना नहीं, है ये घड़ी इम्तिहान की।
होती है मुश्किलों में,ही परख इन्सान की।।
हिम्मत् से काम ले,कद़म आगे बढ़ाए जा।।दिल़ दर्द से....

तू आज़ मुश्किलों से लड़ले,जितना लड़ सके।
कल उतना ही आयेगा तेरा,सज़ के-सवँर के।
कुन्द़न अगर बनना है,तो खुद को तपाए जा।।दिल दर्द से....

आँसू निकल पड़े अगर, तो उनको पिये जा।
गम़ को खुशी से सहले,अपना कऱम किये जा।
काँटों के बीच़ से भी,तू रास्ता बनाए जा।।दिल दर्द से....

कितना भी घना चाहे क्यों ना हो,ये अन्धेरा।
उस पार इसके है खड़ा,सुनहरा सवेरा।
उम्मीद़ का चिराग़,तू दिल़ मे जलाए जा।।दिल़ दर्द से....

अपमान सह के भी ..गोपाल..प्यार लुटाना।
भूले से भी कभी किसी का दिल़ ना दुखाना ।
जो प्याऱ से मिले,उसे दिल़ में बसाए जा।।दिल दर्द से....

Sunday, December 20, 2009

कितना अच्छा हो...

हम ना हिन्दू हों, ना मुसलमाँ हों।
कितना अच्छा हो, सिर्फ इन्साँ हों।।
हर तरफ अमन हो, कुछ ऐसा करें।
सबकी खैरियत् को हम परेशाँ हों।।
दिल में, सबके लिये, मुहब्बत् हो।
एक - एक शै पे रहम् - फरमाँ हों।।
मुल्क मज़हब से बड़ा है ..गोपाल..।
बेशक़् हम ..पंडित- पोप- मुल्ला..हों।।