हालात़ के दलदल़ में फँस के रह गया हँ मैं।
किस्मत़् के भवँर में उलझ के रह गया हूँ मैं।।
गम़ से तो जैसे हो चुका रिश्ता क़रीब़ का।
यूँ दर्द के हद़ से गुजऱ के रह गया हूँ मैं।।
मैं, आद़मी बहुत ही ऊँचाई-पसन्द था ।
कब जाने खलिज़ में उतर के रह गया हूँ मैं।।
म़ाजी को अपने मुड़ के जो देखा,तो ये जाना।
मैं कौन था और कौन बन के रह गया हूँ मैं।।
किस सख्श़ को,मैं अपनी तबाही का दोष दूँ।
खुद़ जिन्दग़ी के हाथों,मर के रह गया हूँ मैं।।
उस सख्श को भी हमसे उम्मीदें वफा की हैं।
जिसकी ज़फा से खुद़ बिखऱ के रह गया हूँ मैं।।
अब उज्र क्या करें,अब तो हस्ती ही मिट गयी।
..गोपाल..गर्दो-खाक़ बन के रह गया हूँ मैं।।
Monday, December 28, 2009
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