चन्द क़तरों को समन्दऱ समझा।
चन्द लम्हों को मुकद्दऱ समझा।।
चन्द साँसें जो कामयाबी की ।
गिनी,तो खुद़ को सिकन्दर समझा।।
चन्द किरणों को भर के मुट्ठी में।
सारा सूरज़ अपने अन्दर समझा।।
देखकर चन्देक़ मज़लूमों को ।
खुद़ को,बस् चाँद के ऊपर समझा।।
कितना नादाऩ था, हकीकत् के -
चन्द टुकड़ों को,मुकम्मल़ समझा।।
आज समझा,कि मैंने क्या समझा।
..गोपाल..किसको किस कद़र समझा।।
Saturday, December 26, 2009
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