खुद को समझा करता था मैं,बहुत बड़ा चालाक।
वक़्त के हाथों से,मैं बनकर रह गया एक मज़ाक।।
अपनी समझदारी पर था,मुझको बड़ा विश्वास।
सुलझाया करता था,सबके मसले और फ़साद।
अब ख़ुद में ऐसा उलझा,कि छान रहा हूँ ख़ाक़।। वक़्त के हाथों..
आत्मविश्वास और स्वाभिमान हैं,घायल-लहूलुहान।
साहस और मनोबल थक गए,दे-दे कर इम्तिहान।
इच्छा और उत्साह,निराशा के बन गए ख़ुराक़।। वक़्त के हाथों..
ईमानदारी, सच्चाई मेरी, बेचैन तड़पती ।
अन्तरात्मा में,आदर्शों की अब चिता है जलती।
डूब गया..गोपाल..किनारे,बनता था तैराक़।। वक़्त के हाथों..
Saturday, April 24, 2010
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हमेशा की तरह उम्दा रचना..बधाई.
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