मेरी जिन्दगी के हरेक रुख़ पे क़िस्मत्,अन्धेरों के पर्दे यूँ लटका गई।
ग़ुज़र कर तो देखा,कई रास्तों पर,मग़र मुझको हर राह भटका गई ।।
खड़े होके देखा किनारे से जब-जब,नज़र आया था पास साहिल बहुत।
मग़र जब चले इत्मिनान-ओ-यकीं से,क़िनारे ही क़िश्ती भवँर खा गई।।
कई मोड़ ऐसे मिले राह में, जो कराते रहे मन्ज़िलों के ग़ुमां ।
वहीं आगये फिर,जहाँ से चले थे,ये किस राह पर ज़िन्दग़ी ला गई।।
सफ़र पे चले तो सुनहरी सुबह थी, मग़र राह में धुन्ध बढ़ती गई ।
अन्धेरा तो..गोपाल..कम ना हुआ,ज़िन्दग़ी की ही शाम-ए-सफ़र आ गई।।
Thursday, April 8, 2010
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khubsurat bhavna pradhan ......achha laga......
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