मौत बन-बन के मुझे, ज़िन्दग़ी सताती है।
मौत आती नहीं,बस्! याद उनकी आती है।।
चैन आता है कहाँ ? नींद कहाँ आती है ?
अब तो बस्! साँस आती है,साँस जाती है।।
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दिल में जज़्ब रखेंगे,ख़ुद झेलेंगे,काटेंगे।
सोचा है,किसी और से अपना दर्द न बाँटेंगे।।
किसी के हँसते-खिलते चेहरे पर,क्यों ग़म मल दें?
क्यों किसी और को अपने कर्म और क़िस्मत् का फल दें?
बो रखी है फ़सल जो ग़म की, दर्द ही काटेंगे।। सोचा है....
जिसका जितना भी हक़ हमपे,अदा तो करना है।
इसके पीछे जो भी ग़ुज़रे, हँस के सहना है ।
नहीं करेंगे ग़िला कोई,ना मोहलत् मांगेंगे।। सोचा है....
दिल में ज़्यादा दर्द उठा तो थोड़ा रो लेंगे।
दाग़ हसरतों के सारे,अश्क़ों से धो लेंगे ।
वक़्त हो कितना भी भारी,हम तन्हाँ काटेंगे।। सोचा है....
सतरंगे सपनों के, सभी घरौंदे टूट गए ।
समय की पग़डन्डी में,बरसों पीछे छूट गए।
अब..गोपाल..के बस में क्या,जो वापस लौटेंगे।।सोचा है....
Monday, June 21, 2010
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बहुत खूब!
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