मर गया इन्सान,ज़िन्दा रहगयीं परछाईयाँ।
झेलता कबतक अकेला,दर्दो-ग़म,रुसवाईयाँ।।
कोशिशें यूँ तो बहुत की,क़ामयाबी के लिये।
पर ज़माने ने उसे दीं,हर क़दम दुश्वारियाँ ।।
मिल सकी माफ़ी कभी ना,छोटी सी भी भूल की।
पाट ना पाया वफ़ा से,रंजिशों की खाईयाँ ।।
दौलतो-शोहरत् की,अन्धी दौड़ में,फिसलन बहुत।
रहगया वो नापता,जज़्बात् की गहराईयाँ ।।
ज़िल्लतों की मार खाकर,पहले तो ग़ैरत् मरी।
रफ्ता-रफ्ता,दम उसूलों का घुटा,ले हिचकियाँ।।
आबरू ईमान की,लुट-लुट के जब बेदम हुई।
उठ गईं फिर हसरतो-उम्मीद की भी अर्थियाँ।।
ज़िन्दग़ी की क़श्मक़श में,पिस रहा..गोपाल..था।
देगईं आराम उसको, मौत की पुरवाईयाँ ।।
Saturday, May 8, 2010
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