खुशियाँ कम,ग़म ज़्यादा सहना,जीवन का दस्तूर हुआ।
अपने हालातों के हाथों, मैं कुछ यूँ मजबूर हुआ ।।
हर ज़िम्मेदारी ढोई...., हमने तो ज़िम्मेदारी से ।
फ़र्ज़ की हद् तक,फ़र्ज़ निभाना,शायद यही कुसूर हुआ।।
ख़ुदग़र्ज़ी ने,ख़ुद्दारी को, घायल,लहूलुहान किया।
हसरत् उजड़ी,सपने बिखरे,दिल भी चकनाचूर हुआ।।
जीवन की आपा-धापी में,ख़ुद को वक़्त न दे पाया।
जीवन का एक लम्बा हिस्सा,यूँ ही गया,फ़िज़ूल हुआ।।
मेरी आँखों ने भी देखे थे कुछ ख़्वाब रुपहले से।
आँख खुली तो सपनों का सारा मंज़र क़ाफ़ूर हुआ।।
अब बस् इक मौक़ा,मैं वक़्त से माँग रहा..गोपाल..मग़र।
लगता है,कि अब मैं क़ाफ़िला-ए-वक़्त से ज़्यादा दूर हुआ।।
Friday, March 19, 2010
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