जितनी चाहे, लिखो अर्जी।
होगा वही जो वक़्त की मर्ज़ी।।
जितने चाहे देखलो सपने। इतना तो है बस् में अपने।।
ये कर लेना,वो कर लेना। सोच-सोच कर खुश हो लेना।।
फ़र्ज़ी बारिस,फ़र्ज़ी छाता। सपनों में जीवन कट जाता।।
कोशिश भी करता है इन्साँ। पर क्या सबको मिलता मौका?।
फिर भी अजब निराली दुनियाँ,देखा करती सपने तब भी।। जितनी....
भरम पाल कर जीते जाना। फ़र्ज़ की चाह में,फ़र्ज़ निभाना।।
सपनों से दिल को बहलाना। इक़ टूटा, दूसरा सजाना।।
ख़ुद से ख़ुद ही बड़ाई ख़ुद की। पीठ ठोकना ख़ुद ही ख़ुद की।।
सच्चाई कुछ भी हो चाहे। पर वो माने,जो मन चाहे ।।
हाय! यही इन्साँ की फ़ितरत्,सच् को ही ठहराता फ़र्ज़ी।। जितनी....
कर्म करो निष्काम हमेशा। कभी करो ना फ़ल की चिन्ता।।
कभी ना हारे,कभी ना जीते। वक़्त कभी भी व्यर्थ न बीते।।
देखे,परखे,समझे,जाने। आँख मूँदकर कहा न माने।।
समय,व्यक्ति और स्थान देखले। कहीं भी कुछ करने से पहले।।
फिरभी सपनों में जीना है,तो..गोपाल..तुम्हारी मर्ज़ी ।। जितनी....
Wednesday, September 1, 2010
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वक्त सख्त हो, उसकी मर्जी ,
ReplyDeleteकविता करने में क्या हर्जी !
विषय जैसा, हो वैसी रचना,
सिल दे वैसा कपडा दर्जी !
अच्छी सरल अभिव्यक्ति ...