Sunday, September 5, 2010

ज़रा मिलते रहिए.....

हँसे भी नहीं थे कि रोना पड़ा। कि अश्कों से दामन भिगोना पड़ा।
ख़ुशी की किरन भी न देखी अभी,कि ग़म के अन्धेरों में खोना पड़ा।।
मुरौव्वत् तो तूफ़ान ने कम न की,मग़र उसको मजबूर होना पड़ा।
नहीं चाहकर भी हरेक हाल में, उसे मेरी क़िश्ती डुबोना पड़ा ।।
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हमें बिछड़े हुई मुद्दत् , ज़रा मिलते रहिए।
दिल को मिलती रहे राहत्,ज़रा मिलते रहिए।।

वो आप क्या गए! कि दिन गए बहारों के।
मस्तियों-शोख़ियों भरे हसींन नज़ारों की ।
तन्हा-तन्हा है मुहब्बत्,ज़रा मिलते रहिए।। दिल को....

कितने अरमानों से बस्ती बसाई थी दिल की।
मेरे सफ़र में आरज़ू नहीं थी, मन्ज़िल की ।
लहूलुहान है हसरत्,ज़रा मिलते रहिए।। दिल को....

ज़िन्दग़ी में अब तो पतझड़ का ही बसेरा है।
जिधर भी देखिए, अन्धेरा ही अन्धेरा है ।
बड़ी ग़मगीन है तबियत्,ज़रा मिलते रहिए।। दिल को....

ग़र मुनासिब न लगे, मिलना सरे-महफ़िल में।
हमें मिल लीजै इशारों मे, नज़र मे, दिल में।
..गोपाल..करके कुछ फ़ितरत्,ज़रा मिलते रहिए।। दिल को....

1 comment:

  1. दिल को मिलती रहे राहत्, ज़रा मिलते रहिए।।

    Nice!

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