Wednesday, August 18, 2010

य़हाँ तक आते-आते.....

चला था कारवाँ लेके, सफ़र पे।
अकेला रहगया मैं,यहाँ तक आते-आते।।

सफ़र जब ग़र्दिशो-तूफ़ान में था।
तल्ख़ सहरा में,बियाबान में था।।
नाख़ुदा तब मुझे सब मानते थे।
ख़ुद से ज़्यादा मुझे पहचानते थे।।
बड़े अदब से सब एहसाँ उठाते ।। अकेला रहगया मैं....

वक़्त का वो पुराना दौर बदला।
रफ़्ता-रफ़्ता सफ़र का ठौर बदला।।
अरे ये क्या! कि सब छितरा रहे हैं।
क्या मंज़िल मिलगई? सब जा रहे हैं।।
ना पूछा-ना कहा कुछ जाते-जाते ।। अकेला रहगया मैं....

ये तो मासूम थे,चालाक़ निकले।
दिल को क्या खूब!करके चाक् निकले।।
आज़ मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ ?
उम्र का वो हिस्सा कहाँ पाऊँ ?।
अबतो मंज़िल भी अपनी भूल आया,चलते-चलाते।।अकेला रहगया मैं...

अब अपने साथ, बस्! तन्हाइयाँ हैं।
कि ग़ुज़रे वक़्त की परछाइयाँ हैं ।।
दिल में दम तोड़ते, कुछेक सपने।
और घायल से कुछ जज़्बात् अपने।।
..गोपाल..अब थक चुका लुटते-लुटाते।।अकेला रहगया मैं...

No comments:

Post a Comment