ज़िन्दग़ी! वैसे तो, तू देख के आसान लगी।
मग़र जीने में, तू हर मोड़ इम्तिहान लगी ।।
कभी उछली,कभी फिसली,कभी ठहर सी गई।
कभी इक़ लम्हा,तू इक़ बरस के समान लगी।।
लगी फूलों का ग़ुलदस्ता,ख़ुशी हो मन में जो।
दिल में हो दर्द तो,तू मौत का सामान लगी।।
हुआ करती थी,कभी रौनके-महफ़िल हमसे।
आज हमसे वही महफ़िल बेरूख़-बेजान लगी।।
कभी पलकों पे बिठाया, चली पीछे मेरे ।
आज क़तरा चली दुनियाँ,बड़ी अन्जान लगी।।
यूँ तो,हर सख़्श का है तज़ुर्बा, अपना-अपना।
..गोपाल..को तो हर क़दम,जंगे-मैदान लगी।।
Sunday, August 1, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
ऐसा लगा कि खुद की जीवनी पढ़ रहा हूँ। बहुत खुब.......
ReplyDelete