Thursday, July 8, 2010

जाने क्यूँ बात चली......

की है तन्हाई से बातें पहरों,सुनी है शोर ख़ामोशी की तमाम।
छटपटाती हुई सुबहें कितनी,और सिसकती हुई देखी है शाम।
ग़म से बेज़ार दोपहर देखी, रात रोती हुई मायूस, नाकाम ।
बन्द कमरे में बेबसी के पल,कटती बेमकसद् ज़िन्दग़ी तमाम।।
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फिर तेरा जिक्र छिड़ा,फिर तेरी बात चली।
दिल में एक हूक उठी,आह बनकर निकली।।

ख्याल बनके उठे, तुम छा गए दिल पर ।
धूल यादों की उड़ी, फिर तमन्ना मचली ।।

पुराने ज़ख्म खुले, बहा फिर खूँ दिल का ।
ग़म के बादल घुमड़े, झड़ी आँसू की चली।।

बहल चला था दिल,मचल उठा..गोपाल..।
अब सम्भालूँ कैसे , जाने क्यूँ बात चली ।।

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