“ ख़ुद अपने आप से,मैं छूटता सा जा रहा हूँ ।
कहीं भीतर ही भीतर,टूटता सा जा रहा हूँ ।।
तमाम सैलाबों में घिरकर,निकल आई किश्ती ।
आके साहिल पे ,पर अब डूबता सा जारहा हूँ।।
भीड़ की गर्दिशों में , हर तरफ़ तन्हाई है ।
कहाँ हूँ मैं ,कि खुद को ढूँढता सा जा रहा हूँ।।
कहें क्या?किस कदर आलूदगी फैली हर सू ।
एक-एक साँस को मैं जूझता सा जा रहा हूँ।।
चन्द ताज़ी हवा के क़तरे, बख़्श दे मालिक।
अब तो बस हद हुई,दम घोंटता सा जा रहा हूँ।।
अब तो हर दिन गु़जर रहा है,इस तरह मानो ।
कि जैसे ख़ुद ही ख़ुद को, लूटता सा जा रहा हूँ।।
मिटा आलूदग़ी , या मेरा फ़ैसला कर दे ।
हूँ तो मिट्टी ही’’गोपाल”, फ़ूटता सा जा रहा हूँ।।“
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