ज़मीं से लग के चलो,हमक़दम ज़मीं होगी।
हर जगह आसमाँ नहीं, मग़र ज़मीं होगी ।।
तू इक़ पौधा था, जिसे अब दरख़्त कहते हैं ।
तेरी रग़ों में भी, धरती की ही नमीं होगी ।।
अपनी ऊँचाईयों पर,इतना तू अभिमान न कर।
देख नीचे , तुझे थाम्हे हुए , ज़मीं होगी ।।
हवा के ज़ोर पर, पत्ते भी शोर करते हैं।
तनिक आँधी चली, तो साख़ भी नहीं होगी ।।
साख़ से छूट कर, कब तक हवा में ठहरेगा ।
उसकी भी मुस्तक़बिल,आख़िर यही ज़मीं होगी।।
खींचती रहती है, हर चीज़ को अपनी जानिब ।
किसे दामन में जगह, इसनें दी नहीं होगी ।।
उठ के मिट्टी से, फिर मिट्टी में ही मिल जाना है।
,,गोपाल,, चाहे कितनी भी बड़ी हस्ती होगी ।।
हर जगह आसमाँ नहीं, मग़र ज़मीं होगी ।।
तू इक़ पौधा था, जिसे अब दरख़्त कहते हैं ।
तेरी रग़ों में भी, धरती की ही नमीं होगी ।।
अपनी ऊँचाईयों पर,इतना तू अभिमान न कर।
देख नीचे , तुझे थाम्हे हुए , ज़मीं होगी ।।
हवा के ज़ोर पर, पत्ते भी शोर करते हैं।
तनिक आँधी चली, तो साख़ भी नहीं होगी ।।
साख़ से छूट कर, कब तक हवा में ठहरेगा ।
उसकी भी मुस्तक़बिल,आख़िर यही ज़मीं होगी।।
खींचती रहती है, हर चीज़ को अपनी जानिब ।
किसे दामन में जगह, इसनें दी नहीं होगी ।।
उठ के मिट्टी से, फिर मिट्टी में ही मिल जाना है।
,,गोपाल,, चाहे कितनी भी बड़ी हस्ती होगी ।।
इतनी सादगी से मन की बात कह डाली आपने... गहरे भावों को प्रस्तुत करती सुंदर रचना।।।
ReplyDeleteहौसला अफ़जाई के लिए शुक्रिया । भास्कर जी ।।
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