Sunday, June 22, 2014

ख़ुद अपने आप से.......................................

ख़ुद  अपने  आप  से, मैं  छूटता  सा  जारहा  हूँ।
कहीं  भीतर  ही  भीतर,  टूटूता  सा  जारहा  हूँ ।।

तमाम शैलाबों में घिरकर,निकल आई क़िश्ती।
आके साहिल पे, पर अब डूबता सा जारहा हूँ ।।

भीड़  की  ग़र्दिशों  में,  हर  तरफ़  तनहाई  है ।
कहाँ हूँ मैं, कि ख़ुद को  ढूढ़ता सा जारहा  हूँ ।।

कहें क्या, किस क़दर आलूदगी  फैली हर सू ।
एक-एक साँस को , मैं जूझता सा जारहा हूँ ।।

चन्द ताज़ी हवा के क़तरे, बख़्श दे मालिक ।
 अब तो बस् हद् हुई, दम घोंटता सा जारहा हूँ।।

मिटा  आलूदगी ,  या  मेरा  फैसला  करदे  ।
हूँ तो मिट्टी ही आख़िर, फूटता सा जारहा हूँ।।

अब तो हर दिन, ग़ुज़र रहा है इस तरह मानो।
कि जैसे, ख़ुद ही ख़ुद को लूटता सा जारहा हूँ ।।

न  देना  दोष  मुझे , मेरे  बदल  जाने  पर  ।
,,गोपाल,, था मैं,पर अब बदलता सा जारहा हूँ।।

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