Wednesday, October 8, 2014

ज़िन्दगी का तज़ुर्बा.......................

ज़िनदग़ी का तज़ुर्बा ,  यूँ तो, हमें चौंका गया  ।
रफ्ता-रफ्ता जाने कैसे, फिर भी जीना आगया।।

ठोकरों पे ठोकरें खाई ,  संभल कर चल दिये ।
इस बहाने ख़ुद ही ख़ुद को, आजमाना आगया।।

हरक़तें यूँ तो , ज़माने ने बहुत की मेरे साथ  ।
पर हमें भी,इसके चलते,ज़ख़्म खाना आगया।।

साथ चलने को कहा ,हमको भी चलते वक़्त ने।
हमने बोला रहने दे,अब बस् यही रास आगया।।

बेअदब जो बेमुरौवत,बेलियाक़त् ,बेलिहाज़।
वो हमें तहज़ीब देते , क्या ज़माना आगया ।।

उम्र भर जो ख़ुद  , ज़माने में रहे हैं बेशऊर  ।
क्या कहें, उन बन्दरों को भी सिखाना आगया।।

कर अदावत् , देखता हूँ , कितनी तुझमें ताव है ।
उसको क्या, सबको जिसे, अपना बनाना आगया।।

सीखने के वास्ते, निकले थे कुछ इल्मो-हुनर ।
शुक्रिया ,,गोपाल,, तुमको दिल दुखाना आगया।।