Sunday, June 22, 2014

ख़ुद अपने आप से.......................................

ख़ुद  अपने  आप  से, मैं  छूटता  सा  जारहा  हूँ।
कहीं  भीतर  ही  भीतर,  टूटूता  सा  जारहा  हूँ ।।

तमाम शैलाबों में घिरकर,निकल आई क़िश्ती।
आके साहिल पे, पर अब डूबता सा जारहा हूँ ।।

भीड़  की  ग़र्दिशों  में,  हर  तरफ़  तनहाई  है ।
कहाँ हूँ मैं, कि ख़ुद को  ढूढ़ता सा जारहा  हूँ ।।

कहें क्या, किस क़दर आलूदगी  फैली हर सू ।
एक-एक साँस को , मैं जूझता सा जारहा हूँ ।।

चन्द ताज़ी हवा के क़तरे, बख़्श दे मालिक ।
 अब तो बस् हद् हुई, दम घोंटता सा जारहा हूँ।।

मिटा  आलूदगी ,  या  मेरा  फैसला  करदे  ।
हूँ तो मिट्टी ही आख़िर, फूटता सा जारहा हूँ।।

अब तो हर दिन, ग़ुज़र रहा है इस तरह मानो।
कि जैसे, ख़ुद ही ख़ुद को लूटता सा जारहा हूँ ।।

न  देना  दोष  मुझे , मेरे  बदल  जाने  पर  ।
,,गोपाल,, था मैं,पर अब बदलता सा जारहा हूँ।।

Saturday, June 21, 2014

ज़मीं से लग के चलो........................

ज़मीं से लग के चलो,हमक़दम ज़मीं होगी।
हर जगह  आसमाँ नहीं, मग़र ज़मीं होगी ।।

तू इक़ पौधा था, जिसे अब दरख़्त कहते हैं ।
तेरी रग़ों में भी, धरती की ही नमीं होगी  ।।

अपनी ऊँचाईयों पर,इतना तू अभिमान न कर।
देख  नीचे , तुझे  थाम्हे  हुए ,  ज़मीं  होगी  ।।

हवा  के  ज़ोर  पर,  पत्ते  भी  शोर  करते  हैं।
तनिक आँधी चली, तो साख़ भी नहीं होगी ।।

साख़ से छूट कर, कब  तक  हवा  में  ठहरेगा ।
उसकी भी मुस्तक़बिल,आख़िर यही ज़मीं होगी।।

खींचती रहती है, हर चीज़ को अपनी जानिब ।
किसे दामन में जगह, इसनें  दी  नहीं  होगी  ।।

उठ के मिट्टी से, फिर मिट्टी में ही मिल जाना है।
,,गोपाल,, चाहे कितनी  भी  बड़ी  हस्ती  होगी ।।